प्रेम एक भावना नहीं यह एक विकल्प है
यदि हम उत्पत्ति 1:28 और 31 पढ़ें तो पता चलता है कि परमेश्वर ने आदम और हवा को आशीषित किया और जो भी परमेश्वर ने रचा वह सब अच्छा था |
इसका मतलब है कि जो कुछ भी परमेश्वर ने रचा वह पवित्र था, अमर था और आशीषित था
लेकिन उत्पत्ति 3:6 और 7 से पता चलता है कि पहले मनुष्य और उसकी स्त्री ने पाप किया और उसके फल स्वरुप परमेश्वर का प्रेम प्रकट हुआ | परमेश्वर ने इस पृथ्वी को शापित कर दिया और मनुष्य को कठिन परिश्रम व अपने पर्यावरण की देख भाल एक ट्रेनिंग के तौर पर दे दी, जिससे कि उसके उद्धार की योजना फलान्वित हो सके, क्योंकि मनुष्य का प्रेम स्वार्थी हो गया था |
परमेश्वर ने अपना पुत्र यीशु हमारे लिए दिया, जो कि हमारा चंगा करने वाला और उद्धारक है
उसके कार्य ने उसके दैविक अभिषेक को सिद्ध कर दिया
उसके हर कार्य में प्रेम, करुना और अनुराग स्पष्ट दिखाई दिए
उसी पुत्र ने हमे अपनी पवित्र आत्मा दी और हमें अपना निवास स्थान बना लीया
इब्रानियों 13:8 कहता है कि यीशु मसीह जैसा कल थ, वही आज है और सर्वदा रहेगा
आज यीशु को वही प्रेम, ज़रूरतमंदों को दिखाने के लिए, हमारे शरीर की ज़रुरत है
1 कुरंथियों 6:19 कहता है कि तुम पवित्र आत्मा के मंदिर हो
क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर अपने राज्य के लिए तुम्हें अपने वरदान और फल देगा?
किस तरह के प्रेम को परमेश्वर प्रकट करना चाहेगा?
पढ़ें लुका 4:18,
यीशु का दिल द्रवित हुआ
यीशु ने मनुष्य का स्वभाव लिया
यीशु प्रेम से उनके करीब गया
लोगों ने उसके प्रति कैसी प्रतिक्रिया की?
लोग उसके प्रति आकर्षित हुए
लोग उसके द्वारा उत्साहित हुए
लोगों ने उसे प्यार किया
तुम्हारे विषय में क्या है, क्या तुम अपने शरीर को उसका मंदिर कहना चाहोगे?
पढ़ें 1 कुरंथियों 6:19-20,
मैं अपना पहले वाला प्रश्न दोहराना चाहूंगी, क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर अपने राज्य के लिए तुम्हें अपने वरदान और फल देगा?
हाँ!
इसका मतलब इस शरीर के देखभाल की ज़रुरत है
इसका मतलब है कि इस शरीर, आत्मा और आत्म जीव के देखभाल की ज़रुरत है
ऊपर वाला वचन कहता है कि उसने अपनी आत्मा अर्थात अपना स्वभाव हमें दे दिया है
ठीक!
मैं तुम्हें एक उधारण देती हूँ -
जब मेरा पुत्र जन्मा तो वह कुछ मेरे और कुछ अरुण के स्वभाव को लेकर जन्मा | जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उसके व्यवहार में हमारे व्यवहार की झलक दिखाई दी, क्योंकि वह हमारे संग-संग रह रहा था
तुम नया जीवन पा चुके हो, परमेश्वर तुम्हारा पिता है और तुम परमेश्वर के निवास स्थान हो, इसका मतलब है कि परमेश्वर तुम्हारे संग-संग है
अगर तुम परमेश्वर के हाथ में अपना नियंत्रण दे दो, तो तुम उसके स्वभाव के सहभागी हो जाओगे, लेकिन याद रहें- परिपक्वता एक प्रतिक्रिया है |
एक पल लो और अपने आप को जांचों
क्या तुम्हारा दिल लोगों के लिए द्रवित हुआ है?
क्या तुमने यीशु के स्वभाव को ग्रहण किया है?
क्या तुम्हारा दृष्टिकोण लोगों के प्रति प्रेम भरा है?
क्या तुम यीशु को तुम्हें अपने स्वभाव में रूपांतरित करने की अनुमति दोगे?
हाँ!
उसका स्वभाव कैसा है?
पढ़ें गलातियों 5:22-23,
मैंने अपने पिछले सन्देश में नौ नहीं बल्कि पवित्र आत्मा के बारह फल का जिक्र किया था
पढ़ें प्रकाशित वाक्य 22:1-2,
फिर
पढ़ें यहेज़केल 47:9-12,
दो भिन्न पुस्तकों में से इन वचनों को पढ़ने के बाद यह निश्चित हो जाता है कि परमेश्वर हमारे शरीर और स्वभाव के प्रति चिंतित है और उसके स्वभाव के बारह अलग-अलग स्वाद है
क्या तुम परमेश्वर के स्वभाव को खोजने के लिए तैयार हो?
चलिए हम प्रेम से शुरुआत करते है
पढ़ें 1 थिस्सलुनीकियों 4:9
कौन तुम्हें प्रेम सिखाएगा?
आज के सामाज में प्रेम शब्द का दुरूपयोग होता है
इस शब्द की हम इस तरह व्याख्या कर सकते है
1. परमेश्वर का प्रेम-अनुराग जो बिना शर्त है
2. पति-पत्नी का प्रेम-लगाव जो एक दूसरे के प्रति है
3. पारिवारिक प्रेम जो परिवार के सदस्यों में होता है
4. आपसी-प्रेम जो भाई-चारे या मैत्रीपूर्ण है
इसके अतिरिक्त प्रेम अपवित्र है
अब कौन है जो तुम्हें प्रेम सिखाएगा?
बोलो-पवित्र आत्मा
याद रहें
वरदान दिए जातें है लेकिन फल विकसित होतें है
अगर तुम एक फल का पौधा लगाना चाहो तो तुम क्या करोगे?
1. एक फल का चुनाव करोगे
2. उसके लिए एक स्थान निर्धारित करोगे
3. मिटटी की गुडाई करोगे
4. पौधा लगाओगे
5. जमीन सोफ्ट और गीली रखोगे
6. उसका रखरखाव या ध्यान रखोगे
इसका मतलब है पौध लगाने के पहले तुम छाटोगे और फिर चार से पांच साल तक उसकी देखभाल करोगे
उसके बाद उस फल के पौधे का रूप दिखाई देगा
इससे यह स्पष्ट पता चलता है कि परिपक्वता एक रात में नहीं आती, जैसे एक पेड़ का फल एकदम से नहीं बनाता उसी तरह एक व्यक्ति का गुण भी परिपक्व होने में समय लेता है
यीशु ने मनुष्य के चरित्र के बारे में कहा
पढ़ें मत्ती 7:16-20
मैं तुमसे प्यार करता हूँ यह कहना जितना सरल है, किसी को प्रेम करना उतना ही कठिन है
ध्यान से सुनो aur jaanchon -
1. परमेश्वर के प्रति हमारा प्रेम प्रदर्शन
पढ़ें मालकी 3:8,
अगर तुम परमेश्वर को दे नहीं सकतें हो तो तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा नहीं है, फिर परमेश्वर के प्रति तुम्हारा प्रेम कहाँ है?
2. लोगों के प्रति हमारा प्रेम प्रदर्शन
जब कोई व्यक्ति तुम्हारी मर्जी के विपरीत और तुम्हें अपशब्द कहें, तुम भड़क पड़ते हो, तुम्हारा लोगों के प्रति प्रेम कहाँ गया?
यीशु ने पिता से उसे पीढ़ा पहुचाने वालों को माफ़ कर देने को कहा
3. पवित्र आत्मा के प्रति हमारा प्रेम प्रदर्शन
पढ़ें गलातियों 5:19-21,
कितनी बार दूसरो को आगे बढ़ता देख कर तुम्हारा दिल ईर्ष्या से भर जाता है, क्या तुम भूल गए कि तुम पवित्र आत्मा का मंदिर हो?
2 राजा 18:30-38, में एलिया ने वेदी को पूरी तरह पानी से भिगो दिया लेकिन उसने जैसे ही परमेश्वर को आवाज़ लगाई स्वर्ग से आग उतरी और सब जला गई |
आज फिर उसी आग की हमें ज़रुरत है
आग जो हमारे चरित्र से सब कुछ जो अशुद्ध है जला दे
जब अशुद्ध जल जायेगा बीमारियाँ भाग जायेंगी, तकलीफें भाग जायेंगी
तब तुम पवित्र आत्मा का पवित्र मंदिर होगे
जिसके हाथ लोगों को चंगाई देंगे
जिसकी उपस्थिति लोगों को आशीषित करेगी
अपने स्थान पर खड़े हो,
परमेश्वर तुम्हे प्रेम सिखाना चाहता है
क्या तुम प्रेम सीखने के लिए तैयार हो?
क्या तुम प्रेम को एक विकल्प बना रहें हो
चलो प्रार्थना करें
पिता परमेश्वर, होने पाए कि मैं आप के प्रेम से भर जाऊं इसलिए मेरी मदद करें, ताकि मैं अच्छे फल धारण कर सकूं, मेरी मदद करें ताकि मैं अच्छे और बुरे फल को परख सकूं और मुझमें परमेश्वर का बिना शर्त वाला अनुराग बह सके प्रभु यीशु के नाम पर|
आमीन
Love is not a feeling it's a choice
If we read Genesis 1:28a and 31a. It says God blessed them(Adam and Eve) and all whatever He created was good.
It means whatever God created on the Earth was holy, free from decay and nothing was cursed.
But in Genesis 3:6 and 7 tells us The first man and woman sinned. The result from sin revealed God's love and God cursed the land and allowed man to toil and care his surrounding as a part of training for the uplifting plan of God's redemption because man's love was replaced with selfishness.
God gave His son Jesus for us, who is our healer and redeemer
His work gave evidence of His divine anointing
Love, mercy and compassion were revealed in every act of His life
The same son gave His spirit to us and made us His dwelling place
Hebrew 13:8 says, Jesus Christ is the same yesterday, to day, and for ever
Today Jesus needs our body to show the same love to the needy
1 Corinthians 6:19 says you are the temple of Holy Spirit
Do you think God will give us His gift and fruit for His kingdom?
What type of love God wants to show others?
Read Luke 4:18, Luk 4:18 "The Lord's Spirit has come to me, because he has chosen me to tell the good news to the poor. The Lord has sent me to announce freedom for prisoners, to give sight to the blind, to free everyone who suffers,
Jesus tendered His heart
Jesus took man's nature
Jesus approached to them in love
How did people react to Him?
They were attracted towards Him
They were encouraged by Him
They loved Him
what about you, do you call yourself the temple of Holy Spirit?
Read 1 Corinthians 6:19-20, You surely know that your body is a temple where the Holy Spirit lives. The Spirit is in you and is a gift from God. You are no longer your own. God paid a great price for you. So use your body to honor God.
I repeat my previous question, Do you think God will give us His gift and fruit for His kingdom?
Yes!, it means there is a demand of taking care of our body
It means taking care of body, soul and spirit. Above scripture tells us He has given His spirit that means his own nature to us
Right!
I will show you one example-
When my son was born, he was born with some of the nature of mine and Arun. As he grew he talked and behaved like us, because he was having fellowship with me and Arun.
You are born again, you are the dwelling place of God, it means God is having fellowship with you
If you allow God, you will have His nature but remember, maturity is a process
Take a moment and Examine your self-
Have you tendered your heart?
Have you taken His(Jesus) nature?
Do you approach people in love?
Will you allow Him to transform you with His nature?
YES!
What is His nature?
Read Galatians 5:22-23, But the fruit of the Spirit is love, joy, peace, longsuffering, gentleness, goodness, faith, Meekness,temperance: against such there is no law.
In my last message I mentioned that there are not 9 but 12 flavors of the fruit of the Holy Spirit.
Read Revelation 22:1-2, The angel showed me a river that was crystal clear, and its waters gave life. The river came from the throne where God and the Lamb were seated.
Then it flowed down the middle of the city's main street. On each side of the river are trees that grow a different kind of fruit each month of the year. The fruit gives life, and the leaves are used as medicine to heal the nations
Read Ezekiel 47:9-12, Wherever this water flows, there will be all kinds of animals and fish, because it will bring life and fresh water to the Dead Sea. From En-Gedi to Eneglaim, people will fish in the sea and dry their nets along the coast. There will be as many kinds of fish in the Dead Sea as there are in the Mediterranean Sea. But the marshes along the shore will remain salty, so that people can use the salt from them. Fruit trees will grow all along this river and produce fresh fruit every month. The leaves will never dry out, because they will always have water from the stream that flows from the temple, and they will be used for healing people
After reading these scriptures from two different books, we can see for sure that God is concern about our body and nature and He has 12 kinds of different flavor(quality) of His spirit
Are you ready to explore God's nature?
Let's begin with love!
Who will teach you to love?
Read 1 Thessalonian 4:9
Love is well abused word in today's society, which speaks mostly carnal ways
We can define love this way
Agape - God's Love which is unconditional
Eros - Husband wife Love
Storge - Family Love
Ph ilia - Brotherly and friendly Love,
Who will teach you love?
Say Holy Spirit
Remember
gifts are given but fruits are developed
In natural if you decide to plant a Fruit Tree what will you do?
1. Choose a Fruit Tree
2. Choose a Location
3. Prepare the Soil
4. Plant
5. Stake, Mulch, Feed, and Water
6. Maintenance
It means pruning your fruit tree at planting and taking care of it during the first 4 to 5 years
Then it can set the structure and growth pattern of your fruit tree.
That shows us clearly that maturity does not come overnight. Even as maturity is not sudden, so also is the fruit of a tree or fruit(quality) of a person
It will be produced naturally and spontaneously. Gifts of the Holy spirit is the result of your faith but fruit of the Holy spirit is the result of your action. It takes time to grow. It is your product.
Jesus spoke about the man's character
Read Matthew 7:16-20
You will know them by their fruits. Are grapes gathered from thorns, or figs from thistles? So, every sound tree bears good fruit, but the bad tree bears evil fruit. A sound tree cannot bear evil fruit, nor can a bad tree bear good fruit. Every tree that does not bear good fruit is cut down and thrown into the fire. Thus you will know them by their fruits.
It is very easy to say some one I love you but it is very hard to love some one.
We have to show
1. our love towards God-
Malachi 3:8, says You people are robbing me, your God. And, here you are, asking, "How are we robbing you?" You are robbing me of the offerings and of the ten percent that belongs to me
If you cannot give to God it shows you do not trust in Him. Where is your love for God!
2. our love towards man-
when someone is favoring you or doing as per your will you feel all joy and love and happiness, what about when situation goes little not favorable?
We react annoyed!!!, and even we stop praying for our brothers rather we speak adverse about them
Where is your love for people gone!!!!!!!!!!!
3. our love towards Holy Spirit-
Read Galatians 5:19-21, The acts of the sinful nature are obvious: sexual immorality, impurity and debauchery; idolatry and witchcraft; hatred, discord, jealousy, fits of rage, selfish ambition, dissensions, factions and envy; drunkenness, orgies, and the like. I warn you, as I did before, that those who live like this will not inherit the kingdom of God.
Are you infected with any of theses sicknesses?
You need to find out yourself, where do you stand today,
Your love towards Holy Spirit will lead you to make yourself pure and holy before God
Your right standing with God will make all evil to run from you and you will experience God's mighty hand upon you as it was with Elijah
Read 2 King 18:30-38, Then Elijah said to all the people, "Come here to me." They came to him, and he repaired the altar of the LORD, which was in ruins. Elijah took twelve stones, one for each of the tribes descended from Jacob, to whom the word of the LORD had come, saying, "Your name shall be Israel." With the stones he built an altar in the name of the LORD, and he dug a trench around it large enough to hold two seahs of seed. He arranged the wood, cut the bull into pieces and laid it on the wood. Then he said to them, "Fill four large jars with water and pour it on the offering and on the wood." "Do it again," he said, and they did it again. "Do it a third time," he ordered, and they did it the third time. The water ran down around the altar and even filled the trench. At the time of sacrifice, the prophet Elijah stepped forward and prayed: "O LORD, God of Abraham, Isaac and Israel, let it be known today that you are God in Israel and that I am your servant and have done all these things at your command. Answer me, O LORD, answer me, so these people will know that you, O LORD, are God, and that you are turning their hearts back again."Then the fire of the LORD fell and burned up the sacrifice, the wood, the stones and the soil, and also licked up the water in the trench.
Notice the word altar, ruin and Israel,
Let me tell you today, if you are ready to prepare your self as an holy altar of God, His fire is willing to consume all troubles from you but you have to come to an agreement with the spirit of God
God is ready to teach you His love
Are you ready to learn?
Are you ready to make love your choice?
Pray
"Lord, may I bear good fruit for your sake. Help me to reject whatever will produce evil fruit. And help me grow in faith, hope, love, sound judgment, justice, courage, and self control."
In Jesus' name
Amen
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